Begum Samru
कहानी बेगम समरू की । एक महिला जिससे न सिर्फ इतिहास की कई एक कड़ियाँ जुड़ी हैं, बल्कि जो खुद इतिहास का एक पन्ना हैं।
HISTORY
11/22/20251 मिनट पढ़ें
ज़ेब-उन-निसा : चाँदनी चौक की फ़रज़ाना से सरधना की शेरनी तक
दिल्ली, १७६५ की एक गरम रात। चावड़ी बाज़ार में लालटेनों की कतारें लरजती थीं, मानो सैकड़ों छोटे-छोटे सूरज ज़मीन पर उतर आए हों। हवा में गुलाब का इत्र, अफ़ीम का हल्का धुआँ और घुंघरुओं की झंकार घुली हुई थी। ख़ानम जान के कोठे पर महफ़िल सजी थी। बीच मंच पर सिर्फ़ चौदह बरस की एक लड़की नाच रही थी—कद साढ़े चार फुट से ज़रा भी ज़्यादा न था, रंग ऐसा गोरा कि लगता चाँदनी उस पर उड़ेल दी गई हो, आँखें हरी-नीली, जैसे कश्मीर की वादी का कोई टुकड़ा आँखों में कै़द कर लिया हो। नाम था फ़रज़ाना। जब वह घूमती तो उसकी लटें हवा में लहरातीं और सारी महफ़िल साँस रोक लेती।
उस रात दरवाज़े पर एक गोरा यूरोपीय खड़ा था—लम्बा, चौड़ा कंधा, चेहरे पर पुराने ज़ख़्मों के निशान। वाल्टर रेनहार्ड सोम्ब्रे। लोग उसे “समरू” कहते थे। पटना में उसने एक ही रात में डेढ़ सौ अंग्रेज़ों को क़त्ल करवाया था; उसका नाम सुनकर माएँ बच्चे सुलाती थीं। वह फ़रज़ाना को देखता रहा, फिर जेब से सोने की मोहरों की थैली निकाली और मेज़ पर पटक दी।
“ये लड़की आज से मेरी है।”
महफ़िल में सन्नाटा छा गया। फ़रज़ाना ने नाच रोका नहीं। वह मुस्कुराई, घुंघरू बजाते हुए पास आई और धीरे से बोली,
“हुज़ूर, मैं किसी की ग़ुलाम नहीं होती। अगर साथ चलना है तो चलिए, पर मालिक मत बनिए।”
समरू पहली बार हँसा। उसने सिर झुकाया और कहा, “चलो।”
और इसी तरह चावड़ी बाज़ार की नाचने वाली रातों-रात दिल्ली की सड़कों पर घोड़े पर सवार हो गई—कमर में पिस्तौल, कंधे पर दुपट्टा, समरू के बग़ल में।
उसके बाद के साल ख़ून, बारूद और धोखे के थे। लखनऊ से रोहिलखंड, आगरा से भरतपुर, डीग से दोआब—जहाँ भी जंग थी, समरू की तोपें गरजतीं और फ़रज़ाना उसके साथ होती। दिन में सिपाही ट्रेनिंग करते, रात में वह घायलों के ज़ख़्म सीती। जब ज़रूरत पड़ी तो उसने खुद बंदूक़ उठाई। सिपाही उसे “बेगम समरू” कहने लगे—समरू का नाम ज़ुबान पर यूँ ही पिघल गया।
१७७८। आगरा का क़िला। समरू अचानक बीमार पड़े। ज़हर था या दिल का दौरा, कोई नहीं जान सका। मरते वक़्त उन्होंने फ़रज़ाना का हाथ थामा और फुसफुसाए, “जागीर तुम्हारी रहेगी… वादा करो कि कमज़ोर नहीं पड़ोगी।”
फ़रज़ाना ने आँसू नहीं बहाए। सिर्फ़ सिर हिलाया।
समरू की लाश अभी ठंडी भी न हुई थी कि यूरोपीय अफ़सरों ने बग़ावत की धमकी दी। “औरत कैसे कमांड करेगी?”
बेगम ने हुक्का सुलगाया, एक लम्बा कश लिया और बोलीं, “जो साथ देना चाहे दे, जो जाना चाहे जाए। पर याद रखो, मैं फ़रज़ाना हूँ—जिसने तुम्हारे समरू को भी क़ाबू में किया था।”
अगले दिन ८२ यूरोपीय अफ़सरों और चार हज़ार सिपाहियों ने शाह आलम द्वितीय के दरबार में अर्ज़ी दी—हम बेगम समरू के नीचे लड़ेंगे। मुग़ल बादशाह हैरान थे। एक तवायफ़? पर जब बेगम ने अपनी सेना परेड करवाई—फ़्रांसीसी तोपची, राजपूत घुड़सवार, जाट पैदल—तब फ़रमान पर मोहर लग गई। सरधना की जागीर बेगम की हो गई। सालाना नौ लाख रुपए की आमदनी।
अब बेगम सिर्फ़ साढ़े चार फुट की औरत नहीं रहीं। वह पगड़ी बाँधतीं, कंधे पर तलवार लटकातीं और घोड़े पर सवार होकर युद्ध में जातीं। सिपाही कहते थे, “जब बेगम अपना लबादा फेंकती हैं, दुश्मन की आँखें चौंधिया जाती हैं।” अंधविश्वासी लोग फुसफुसाते, “ये चुड़ैल है।”
१७८८, गोकुलगढ़ का मैदान।
मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय का शाही ख़ेमा घिर चुका था। रोहिल्ला सरदार नजफ़ कुली ख़ान तलवार निकाले बादशाह को पकड़ने दौड़ा। चारों तरफ़ लाशें, बारूद की गंध, चीखें। तभी एक पालकी ज़ोर से आई। पर्दा हटा। दो हरी आँखें चमकीं। बेगम बाहर निकलीं—सिर्फ़ साढ़े चार फुट की औरत, पर उस वक़्त पूरी क़ायनात उनमें समा गई लगती थी।
उन्होंने चीख कर हुक्म दिया, “तोपें गरजाओ!”
धड़धड़ाती तोपों ने रोहिल्लों को पीछे धकेला। बेगम बादशाह के पास पहुँचीं। शाह आलम उनके पैरों पर गिर पड़े और रोते हुए बोले, “ज़ेब-उन-निसा! तुमने आज दूसरी बार मेरी जान बचाई।”
उसी दिन बादशाह ने उन्हें “ज़ेब-उन-निसा” — औरतों का गहना — की उपाधि दी।
१७९५। प्रेम फिर दस्तक देता है। फ्रांसीसी अफ़सर ले वासौल्ट। लम्बा, गोरा, मीठी फ्रांसीसी ज़ुबान। बेगम उसके प्यार में पड़ गईं। अफ़वाह उड़ी कि दोनों शादी कर रहे हैं। सिपाहियों ने बग़ावत कर दी। एक रात दोनों भागने की कोशिश करते हैं—ले वासौल्ट घोड़े पर, बेगम पालकी में। गोली चली। ले वासौल्ट को लगी। उसने खुद को गोली मार ली। बेगम ने देखा तो अपने सीने में ख़ंजर उतार लिया। पर मौत ने उन्हें भी ठुकरा दिया। वह बच गईं। फिर कभी किसी मर्द पर भरोसा न किया।
१८०३। लॉर्ड लेक दिल्ली पर चढ़ाई कर रहे थे। बेगम जानती थीं—वक़्त बदल गया है। तलवार से ज़्यादा दिमाग़ की ज़रूरत है। उन्होंने संधि कर ली। लॉर्ड लेक जब सरधना आए तो बेगम ने उन्हें गले लगाया और हँसते हुए कहा, “ये तो बस एक पश्चातापी बच्चे का पादरी को चुम्बन है।” सिपाही घबरा गए, पर बेगम ने सब संभाल लिया।
१७८१ में, तीस बरस की उम्र में, उन्होंने रोमन कैथोलिक धर्म क़बूल कर लिया। नाम रखा जोआना नोबिलिस। सरधना में भव्य गिरजाघर बनवाया—बेसिलिका ऑफ़ अवर लेडी ऑफ़ ग्रेसेस—जो आज भी खड़ा है। उनकी ज़िंदगी में सिर्फ़ एक दोस्त थी—बेगम उम्दा। दोनों अच्छे-बुरे में साथ रहीं।
चाँदनी चौक में उनका महल आज भी खड़ा है—भागीरथ पैलेस—जिसे शाह आलम द्वितीय ने उपहार में दिया था।
१८३६ की एक ठंडी जनवरी की सुबह। अस्सी-तीन बरस की बेगम ने आख़िरी साँस ली। उनके पास अपार दौलत थी—हीरे, सोना, तोपें, जागीरें—पर कोई वारिस नहीं। आज भी जर्मनी में “रेनहार्ड्स एर्बेंगेमाइनशाफ़्ट” नाम का संगठन उनकी विरासत के लिए अदालतों में लड़ रहा है।
उनकी क़ब्र पर संगमरमर की पटिया पर लिखा हैः
“Here lies Joanna Nobilis Sombre, Begum Samru, Princess of Sardhana, died 27th January 1836, aged 83 years.”
चावड़ी बाज़ार की वह चौदह साल की लड़की जिसे दुनिया ने तवायफ़ कहा,
वही औरत बनी जिसने मुग़ल बादशाह को दो बार बचाया,
मराठों को असाय की जंग में रोका,
अंग्रेज़ों से चतुराई से संधि की,
और भारत की इकलौती कैथोलिक शासिका बनकर इतिहास में अमर हो गई।
उसकी कहानी कोई परी कथा नहीं।
ये सच है।
और सच हमेशा परी कथाओं से कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत और कहीं ज़्यादा ख़तरनाक होता है।
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